पौष संक्रांति क्या है और इसे क्यों मनाया जाता है?
पौष संक्रांति, जिसे मकर संक्रांति भी कहा जाता है, का धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व क्या है? जानें इसका ऐतिहासिक महत्व, देवताओं की जागृति और भीष्म पितामह के अद्वितीय प्रसंग से जुड़ी कहानियां।

पौष संक्रांति क्या है?
पौष संक्रांति, जिसे मकर संक्रांति या उत्तरायण संक्रांति के नाम से भी जाना जाता है, हिंदू धर्म का एक प्रमुख पर्व है। यह पर्व हर साल पौष मास के अंतिम दिन मनाया जाता है, जो आमतौर पर 14 जनवरी को पड़ता है। इस दिन सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है और उत्तरायण की ओर अपनी यात्रा शुरू करता है।
संक्रांति का अर्थ है ‘संचार’ या ‘गमन’। जब सूर्य एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करता है, तो उसे संक्रांति कहा जाता है। पौष संक्रांति के दिन सूर्य के उत्तरायण होने के कारण इसे विशेष महत्व दिया जाता है।
उत्तरायण और दक्षिणायन का महत्व
हिंदू धर्म के अनुसार, एक वर्ष को देवताओं के लिए एक दिन और रात के बराबर माना जाता है। उत्तरायण देवताओं का दिन और दक्षिणायन उनकी रात कहलाती है।
उत्तरायण (जनवरी से जून): इस अवधि को शुभ और सकारात्मक ऊर्जा का प्रतीक माना जाता है।
दक्षिणायन (जुलाई से दिसंबर): इसे देवताओं की रात्रि कहा जाता है, जब वे विश्राम करते हैं।
पौष संक्रांति के साथ देवताओं की रात्रि समाप्त होती है, और उनकी दिनचर्या पुनः आरंभ होती है। यही कारण है कि इस दिन विशेष पूजा-अर्चना, गंगा स्नान और दान-पुण्य का महत्व है।
भीष्म पितामह और पौष संक्रांति
पौराणिक कथाओं के अनुसार, महाभारत के कौरव-पांडव युद्ध में भीष्म पितामह को अर्जुन ने अपने बाणों से घायल किया था। भीष्म पितामह ने सूर्य के उत्तरायण होने तक अपने प्राण त्यागने का निर्णय लिया था। 58 दिनों तक वह बाणों की शय्या पर रहे और पौष संक्रांति के दिन योगबल से शरीर त्याग कर स्वर्ग गए।
भीष्म पितामह को यह वरदान प्राप्त था कि वह अपनी इच्छा से मृत्यु को प्राप्त कर सकते हैं। उन्होंने यह निर्णय लिया कि दक्षिणायन में शरीर त्यागने से स्वर्ग में प्रवेश में देरी होगी, इसलिए उन्होंने उत्तरायण का इंतजार किया। यह प्रसंग पौष संक्रांति को और भी विशेष बनाता है।
धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराएं
पौष संक्रांति के दिन सुबह जल्दी उठकर गंगा स्नान करने की परंपरा है। मान्यता है कि इस दिन गंगा स्नान करने से पापों का नाश होता है। साथ ही, लोग दान-पुण्य, सूर्य देव की पूजा और विशेष रूप से तिल और गुड़ का प्रसाद ग्रहण करते हैं।
ग्रामीण भारत में इस दिन आग जलाकर भीष्म पितामह की प्रतीकात्मक चिता का दहन किया जाता है। इसे ‘बूढ़ी के घर जलाना’ या ‘मेड़ा मेड़ी जलाना’ भी कहा जाता है।
आधुनिक दृष्टिकोण और वैज्ञानिक महत्व
वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो पौष संक्रांति वह समय है जब सूर्य पृथ्वी के उत्तरी गोलार्ध की ओर झुकने लगता है। इससे दिन बड़े और रातें छोटी होने लगती हैं। यह बदलाव न केवल मौसम में, बल्कि मानव जीवन में भी नई ऊर्जा और सकारात्मकता लेकर आता है।
पौष संक्रांति की वर्तमान महत्ता
आज भी यह पर्व ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। यह दिन परिवार, सामाजिक एकता और परंपराओं के पुनर्जीवन का प्रतीक है। लोग अपने घरों में त्योहारों की तैयारी करते हैं, स्वादिष्ट भोजन बनाते हैं और अपने प्रियजनों के साथ समय बिताते हैं।
निष्कर्ष
पौष संक्रांति केवल एक खगोलीय घटना नहीं है, बल्कि यह धार्मिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्व का पर्व है। यह दिन हमें परंपराओं के साथ-साथ जीवन में सकारात्मक ऊर्जा बनाए रखने की प्रेरणा देता है।
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नोट:
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